अखिलेश यादव सेनपुर में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मंत्री बलराम यादव के आवास पर पहुंचे थे. यहां उन्होंने ऐलान किया कि सपा सहयोगी दलों के साथ मिलकर सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए सपा ने अपनी तैयारी अभी से ही शुरू कर दी है. 2022 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद अखिलेश यादव ने रणनीति बदली है. समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने बीते शनिवार यानी 5 मार्च को आजमगढ़ में कहा कि सपा गठबंधन यूपी में बीजेपी को टक्कर देने के लिए पूरी तरह तैयार है. उन्होंने कहा कि पार्टी सहयोगी दलों के साथ मिलकर सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.
दरअसल अखिलेश यादव आजमगढ़ के अतरौलिया क्षेत्र के सेनपुर में पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व मंत्री बलराम यादव के आवास पर पहुंचे थे. उनकी पत्नी लल्ली देवी का हाल ही में निधन हुआ था. जिसका श्रद्धांजलि कार्यक्रम सेनपुर स्थित उनके आवास पर रखा गया था.
इसी मौके पर अखिलेश यादव ने मीडिया से बात की और ऐलान किया कि उनकी पार्टी गठबंधन के साथ मिलकर 2024 के लोकसभा चुनाव में प्रदेश की सभी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. इसके अलावा सपा सुप्रीमो ने कहा कि उपचुनाव में भारतीय जनता पार्टी को जो हार मिली है उसका कारण बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, स्वास्थ्य सुविधा जैसी लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सरकार की नाकामी है.
ऐसे में सवाल उठता है कि अखिलेश का गठबंधन में चुनाव लड़ने से बीजेपी को किन मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. वहीं एक साथ चुनाव लड़ने को लेकर अखिलेश के सामने क्या चुनौतियां होगी.
छह साल में कर चुके है कई बार गठबंधन
22 साल पहले शुरू हुआ अखिलेश यादव का सफर कई प्रयोगों से भरा रहा है. वह दो राष्ट्रीय पार्टी सहित 7 दलों से गठबंधन कर चुके हैं. जिसमें से कई दलों ने उनका साथ छोड़ दिया.
1. साल 2017: अखिलेश यादव ने साल 2012 में यूपी के सीएम का पद हासिल किया था. जिसके बाद हुए विधानसभा चुनाव यानी साल 2017 में उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था. लेकिन इस बार पाने में कामयाब नहीं हो सके और नतीजे के बाद यह गठबंधन टूट गया.
2. साल 2019: साल 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने बसपा का हाथ थामा. हालांकि इसका भी फायदा बसपा सुप्रीमो मायावती को ही हुआ. गठबंधन के तहत बसपा 38, सपा 37 और 3 सीटों पर रालोद चुनाव लड़ी. जिसमें से समाजवादी पार्टी को 37 में से 5 सीटें मिलीं, जबकि बसपा को 10 सीटें. जिसे जीतकर वह बीजेपी के बाद दूसरी बड़ी पार्टी बन गई. यह गठबंधन भी रिजल्ट आने तक ही चला.
3. साल 2022: इस चुनाव में सपा ने जनवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोक दल, अपना दल (कमेरावादी), सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और महान दल के साथ गठबंधन बनाया था. इस में भी सिर्फ दो दल ही अखिलेश के साथ बचे हैं.
बीजेपी की मुश्किलें बढ़ाएगी दलित आबादी
सपा के गठबंधन में चुनाव लड़ने के इस ऐलान के पीछे दलित और ओबीसी को साथ लाने की भी कवायद शामिल है. साल 2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी 403 में से 111 सीटें जीतकर यूपी की सबसे बड़ी दूसरी पार्टी बनकर सामने आई थी. पूर्वांचल के गाजीपुर, अंबेडकरनगर, आजमगढ़ और कौशांबी समेत कई ऐसे जिले हैं, जहां सपा ने एकतरफा जीत दर्ज की है.
पूर्वांचल के साथ ही सपा यादवलैंड में भी काफी मजबूत होकर उभरी है, हालांकि वेस्टर्न यूपी में पार्टी की जमीन खिसक चुकी है. वेस्टर्न यूपी के 27 लोकसभा में से सिर्फ 3 सीटें सपा के पास है. ऐसे में अखिलेश के लिए यहां मजबूत उपस्थिति दर्ज करने की चुनौती है.
उत्तर प्रदेश पॉलिटिक्स में दलित कितने प्रभावी हैं
उत्तर प्रदेश में 21 प्रतिशत से भी ज्यादा दलित वोट परसेंट हैं. जिनमें 12 प्रतिशत आबादी जाटव की हैं, जबकि 9 प्रतिशत गैर जाटव दलित हैं, जिनमें पासी वाल्मीकि और दूसरी 50 उपजातियां शामिल हैं. इस राज्य में ओबीसी के बाद सबसे ज्यादा आबादी दलित वोटरों की ही है, जिसके कारण पॉलिटिक्स में दलित का वोट पाना सबसे ज्यादा जरूरी है.
इसके अलावा राज्य में 49 जिले ऐसे हैं जिनमें सबसे ज्यादा आबादी दलितों की है. वही 42 जिले ऐसे हैं जिनमें 20 प्रतिशत से भी ज्यादा दलित आबादी है. सबसे ज्यादा संख्या दलित मतदाताओं वाले जिले में सोनभद्र, कौशाम्बी और सीतापुर शामिल है.
किन जिलों में कितनी दलित आबादी
सोनभद्र में 41.92 प्रतिशत, कौशाम्बी में 36.10 प्रतिशत, सीतापुर में 31.87 प्रतिशत, हरदोई में 31.36 प्रतिशत, उन्नाव में 30.64 प्रतिशत, रायबरेली में 29.83 प्रतिशत, औरैया में 29.69 प्रतिशत, झांसी में 28.07 प्रतिशत, जालौन में 27.04 प्रतिशत, बहराइच में 26.89 प्रतिशत, चित्रकूट में 26.34 प्रतिशत, महोबा में 25.78 प्रतिशत, मिर्जापुर में 25.76 प्रतिशत, आजमगढ़ में 25.73 प्रतिशत, लखीमपुर खीरी में 25.58 प्रतिशत, हाथरस में 25.20 प्रतिशत, फतेहपुर में 25.04 प्रतिशत, ललितपुर में 25.01 प्रतिशत, कानपुर देहात में 25.08 प्रतिशत और अम्बेडकर नगर 25.14 में शामिल हैं.
इन जिलों के अलावा आगरा में 24 फीसदी दलित आबादी है, गौतम बुद्धनगर में 18 फीसदी, मुजफ्फरनगर में 23 फीसदी, सहारनपुर में 24 प्रतिशत, बिजनौर में 25 प्रतिशत, मेरठ में 23 प्रतिशत, गाजियाबाद में 21 प्रतिशत, बागपत में 20 प्रतिशत, अमरोहा में 22 प्रतिशत, मुरादाबाद 18 में प्रतिशत और बरेली में 20 प्रतिशत दलित वोटर्स हैं.
वहीं यूपी में लोकसभा की 80 सीटें हैं और 17 सीटें दलित के लिए आरक्षित हैं. यानी 80 में से 17 सीटों पर केवल दलित समुदाय के लोग ही चुनाव लड़ सकेंगे. इनमें आगरा, बुलंदशहर, हाथरस और इटावा की सीटें भी शामिल हैं.
शिवपाल के आने से क्या होगा फायदा?
अखिलेश यादव और उनके चाचा शिवपाल यादव एक साथ आ चुके हैं. शिवपाल यादव के साथ होने का एक फायदा अखिलेश की पार्टी को ये मिल सकता है कि शिवपाल को पार्टी संगठन के काम का लंबा अनुभव है. जिसका फायदा वह ले सकते हैं.
इसके अलावा ओपी राजभर की पार्टी एसबीएसपी और निषाद पार्टी सपा का साथ छोड़ चुकी है, ऐसे में उनकी भरपाई करने और अन्य छोटे दलों को गठबंधन में शामिल होने के लिए अखिलेश, चाचा शिवपाल की मदद ले सकते हैं.
शिवपाल यादव अपने संगठनात्मक कौशल और पार्टी कार्यकर्ताओं को लामबंद करने की क्षमता के लिए जाने जाते हैं. मौका मिलने पर वह 2024 के चुनावों के लिए पार्टी को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे. सपा के पाले में उनकी वापसी से पार्टी के यादव वोट आधार में विभाजन को भी रोका जा सकेगा.
अखिलेश आम चुनाव के लिए राष्ट्रीय लोकदल (RLD) के साथ अपनी दोस्ती को और मजबूत करने के अलावा आजाद समाज पार्टी (भीम आर्मी) जैसी छोटी पार्टियों पर भी ध्यान केंद्रित करेंगे.
अखिलेश यादव के लिए 80 सीटों पर सबसे बड़ा चैलेंज
सपा प्रमुख अखिलेश यादव के लिए लोकसभा चुनाव में सबसे बड़ा चैलेंज बीजेपी का MY समीकरण है. MY समीकरण का मतलब है मोदी-योगी की जोड़ी. इन दो बड़े चेहरे के एक साथ आने से बीजेपी और भी मजबूत हो जाती है और इस जोड़ी से पार पाना अखिलेश के लिए बड़ी चुनौती है.
हालांकि सपा भी एम-वाई (मुस्लिम-यादव) आधार को मजबूत करने और बीजेपी के एम-वाई (मोदी-योगी) को चुनौती देने की कोशिश कर रही है.
सपा कैसे करेगी इसका सामना
बीजेपी की एमवाई (मोदी- योगी( समीकरण को चुनौती देने के लिए अखिलेश यादव ने पश्चिमी यूपी में मजबूत राष्ट्रीय लोकदल और चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी पर ध्यान केंद्रित किए हुए है. समाजवादी पार्टी राज्य के सभी छोटे दलों को एक साथ ला रही है ताकि वह बीजेपी के सामना मजबूती से लोकसभा चुनाव 2024 में उतर सके.
हालांकि, यहां यह भी कहना गलत नहीं होगा कि सपा के पास बीजेपी जितनी बड़ी संगठनात्मक मशीनरी नहीं है. एक तरफ जहां बीजेपी के पास कई बड़े चेहरे हैं, वहीं दूसरी तरफ सपा एक ही नेता के नाम पर चुनाव लड़ती आई है.
कौन हैं चंद्रशेखर आजाद?
चंद्रशेखर आजाद सबसे पहले साल 2015 में सुर्खियों में आए, वजह था सहारनपुर के अपने गांव में ‘द ग्रेट चमार’ का बोर्ड लगाना. आजाद साल 2014 में दलित संगठन भीम आर्मी से जुड़े थें और तब से लगातार दलितों के हितों को लेकर आवाज उठाते रहे हैं. साल 2020 में उन्होंने आजाद समाज पार्टी का गठन भी किया था.
2017 में सहारनपुर में जातीय हिंसा भड़की, जिसके बाद उनकी गिरफ्तारी हुई और उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत केस दर्ज किया गया. आजाद अपने तेजतर्रार भाषण से दलितों के मुद्दे को लगातार उठाने के कारण समुदाय के युवाओं में काफी पॉपुलर हैं. टाइम मैगजीन ने 100 उभरते हुए नेताओं की सूची में चंद्रशेखर का नाम शामिल किया था.
गठबंधन को लेकर कब कब अखिलेश पर साधा गया निशाना
20 अप्रैल 2019: साल 2019 के 20 अप्रैल को पीएम नरेंद्र मोदी ने अखिलेश पर निशाना साधते हुए कहा कि, “जनता खोखली दोस्ती करने वालों का सच जानती है और इन दोनों की दोस्ती टूटने की तारीख 23 मई तय हो चुकी है.”
23 जून 2019 को मायावती : साल 2019 के 23 जून को बसपा सुप्रीमो मायावती ने अखिलेश पर निशाना साधते हुए कहा, “लोकसभा चुनावों के बाद सपा का व्यवहार ठीक नहीं था. इसलिए पार्टी के हित में बसपा आगे सभी चुनाव अकेले लड़ेगी.”
आजमगढ़ में मीडिया से बातचीत के दौरान अखिलेश ने बीजेपी पर साधा निशाना
अखिलेश यादव ने आजमगढ़ में मीडिया से बातचीत के दौरान भारतीय जनता पार्टी पर जमकर निशाना साधा. उन्होंने कहा कि, बीजेपी की सदन में जवाब के साथ नहीं आती है. वहां विपक्ष कुछ भी सवाल करता है तो उसका जवाब सरकार के पास होता.’
अखिलेश ने बीजेपी को असंवेदनशील सरकार बताते हुए कहा, ‘ इस पार्टी को देश में बढ़ रही महंगाई से भी कोई फर्क नहीं पड़ता है. उन्हें इससे भी फर्क नहीं पड़ता कि उनके सबसे करीबी मित्र विश्व के नंबर दो से कहां पहुंच गए.
अखिलेश ने अदानी का नाम लिए बिना ही कहा कि देश का 20 लाख करोड़ डूब गया है. ये सरकार जनता के दुख दर्द को नहीं समझ रही है समाज में एक दूसरे के बीच खाई पैदा कर रही है.